Wednesday, October 24, 2012

कुछ तो बात थी मेरे गाँव में



हर दिन बदलती ज़िन्दगी की दौड़ में, 
पल-पल बिगड़ती परिस्थितियों के दौर में...
आकाश की उचाईयों को छूने की आस में,
हर बार जीत पाने की अबूझ-सी प्यास में...
अपनों से मीलों दूर...यहाँ है बस परछाई साथ में,
निकलता हूँ घर से जब, लिए कुछ लकीरें हाथ में...
सोचता हूँ, समझता हूँ, चाहता हूँ, पा लूं हर मंज़िल,
फिर कभी, कहीं, जाने क्यूँ अनायास ही, कह उठता है दिल...
रोटी, कपड़ा, गाड़ी, मकान सब तो हैं तेरे पास में,
और कितनी चाहते लिए घूमता है, छोटे से अपने 'काश' में...
बचपन में जो ख़ुशी पाता था तू, लिए बस एक रुपया हाथ में,
क्यूँ लाखों करोड़ो भी नहीं दे पाते वो सुख आज के हालत में... 
तलाशता है क्या इमारतों की भीड़ और मशीनों के शोर में,
सब कुछ है तेरे पास, फिर क्यूँ उमंग नहीं आजकल की भोर में...
फिर सोचता हूँ...न शहरों की चमक-धमक में, न जंगल उजाड़ में, 
यहाँ कुछ भी तो वैसा नहीं, था जैसा मेरे पहाड़ में...
न अपने हैं, न अपनों-सा एहसास है, 
न ही सुख-दुःख की साझेदारी, न आपसी विश्वास है... 
न रिश्ते, न त्यौहार, न ही मेल-मिलाप है, 
शायद इसीलिए मन में मेरे, अब भी पहाड़ की अमिट-सी छाप है... 
वहाँ न गाड़ी थी, न सड़क थी और न ही इम्पोर्टेड जूते थे पाँव में,
पर फिर भी कुछ तो बात थी मेरे गाँव में...

Dedicated to Sanjupahari :)