Friday, August 7, 2009

उत्तराखंड में है गाँव मेरा


पली बड़ी दिल्ली में मैं... दिल्ली है जन्म स्थान मेरा ...
पर मम्मी-पापा कहते हैं... उत्तराखंड के अल्मोड़ा में है गाँव तेरा...
हिमालाय के पहाडों से है जुड़ा पुश्तैनी नाम मेरा...
ऊँचे-ऊँचे हैं पहाड़ जहाँ और पेड़ों से है जो हरा-भरा ...
पापा जब भी बीते दिनों की बात बताते हैं...
उनके और अपने बचपन में अन्तर कई हम पाते हैं...
पहाडों में खेले कूदे वो, मीलों चलकर स्कूल को जाते थे...
पानी बहुत कम मिलता था..शायद हफ्तों में कभी नहाते थे ... :)
जो भी था, जैसा और जितना भी था, सब कुछ अपना-अपना था ...
आज की तरह सुविधायें ना थी, पर आंखों में सच्चा सपना था...
सपना था की पढ़ लिखके, मेहनत करके कुछ बन दिखाना है...
केवल अपना नहीं सभी अपनों का जीवन स्तर ऊपर उठाना है ..
इसी चाह में.. इसी राह में...पढ़ते रहे ...चलते रहे..
छूट गया पीछे घर उनसे...पर यादों में पहाड़ बसे रहे...
कई बार उन सपनो में वो दोबारा खो से जाते हैं...
कहते-कहते आंखों में उनकी आंसू भी आ जाते हैं...
प्यार बहुत है उन्हें अपने गाँव से, उनके आंसू एहसास दिलाते हैं ...
बसे हैं चाहे दिल्ली में आज, पर लौटकर फिर वहीं वो जाना चाहते हैं...
प्यार मिला संस्कार मिला उनको जिन पहाडों में...
बसा हुआ है आज भी वो उनकी मन की धारों में...
उनकी बातें सुनके लगता है.. शायद वो सच में कोई सपना था...
जहाँ प्यार बसता था दिलों में और हर कोई अपना-अपना था...
आज तो मतलब की है दुनिया.. कौन किसी का होता है...
वही धोखा देता है जिसपर सबसे ज्यादा भरोसा होता है...
कोई किसी का नहीं.. पैसा सबका बना चहेता है...
सुना है बाप और भाई से भी बड़ा आज रुपैया है...
कहाँ गए वो दिन जिनकी याद मेरे पापा करते हैं...
आज तो हम अपनों को भी अपना कहने से डरते हैं...
दिल्ली क्या पहाडों में भी अब ऐसा ही होता है...
देख अपनी मिट्टी की ये हालत ही शायद पापा का अंतर्मन रोता है...
याद करते हैं पापा जिनको क्या वो दिन लौटकर फिर आयेंगे...
हम अपने बच्चों को कौन से पहाड़ की कहानी सुनायेंगे ...
इजा-बाबू , अम्मा-बुबू कौन होते हैं ...कैसे उन्हें समझायेंगे..
शायद हम उन्हें अपनी येही दुनिया दिखायेंगे...
दुनिया जहाँ दिन के चौबीस घंटों में अपनों के लिए कोई वक्त नहीं...
और सौ किलो के शरीर में मातृभूमि के लिए दो ग्राम भी रक्त नहीं...
जहाँ खुली हवा में सांस लेने से जान को खतरा है....
प्रदूषण और जाने कितने ही रोगों ने इंसान को हर तरफ़ से जकडा है...
हाँ पापा की तरह उत्तरखंड में ही है गाँव मेरा ...
पर शायद उनकी तरह गहरा नही पहाडों से प्रेम मेरा ....
प्यार होता तो पहाडों की सच्चाई खोते देख मेरी आँख में भी आंसू आते...
और हम केवल उनके बारे में लिखते या पढ़ते नहीं... मिलजुल कर कुछ कर दिखाते...

3 comments:

chandishibotre said...

lovely poem dear...

Barthwal said...

उत्तराखंड ....मेरा अपना ...आपकी ये रचना उत्तराखंड के प्रेम् से ओत प्रोत है..भाव और अभिवक्ति के मिश्रण की सुंदर रचना..
प्रतिबिम्ब बडथ्वाल.
http://merachintan.blogspot.com/
http://barthwal-barthwal.blogspot.com/

Unknown said...

Very True..Nice one!! :)