Wednesday, July 7, 2021

जो

खुद की ज़रूरत पड़ने पर ही 'जो 'नज़र आते हैं,
बार-बार, गिन-गिनकर अपने एहसान 'जो' याद दिलाते हैं...
अपने, केवल अपने, बस अपने ही बखान 'जो' किए जाते हैं...
स्वयं को दुनिया जहां में 'जो' सबसे बेहतर बतलाते हैं...
और अपनी ख़्वाहिशों का बोझ दूसरे पर थोपते 'जो' ज़रा ना हिचकिचाते हैं...
दूसरे की उपलब्धियों पर बेझिझक 'जो' अपना हक़ जताते हैं..
पर दुसरे की ज़रूरत के समय अपनी ज़िम्मेदारी से 'जो' आँख चुराते हैं...
समाज के आगे 'जो' अपनों की बेज़्ज़ती करते ज़रा ना कतराते हैं..
और अपने कष्टों की गाथा ही 'जो' तोते की तरह रटते जाते हैं...
आपकी राय में , ये 'जो' क्या कहलाते हैं?


 

हमारा दिल ना जलाओ

तीज-त्यौहार पर बात सबसे हो ही जाती है,

रोज़-रोज़ बात करने की नौबत किसी से कम ही आती है,

फिर भी कभी-कभी यूँ ही फ़ोन मिला लेते हैं,

ठीक हैं वो पूछकर, ठीक हैं हम बता देते हैं,

एक दिन यूँ ही एक जनाब को फोन लगाया,

"आज कैसे याद किया" वहां से पहला प्रश्न आया,

सुनते ही मन खराब हुआ, दिमाग भन्नाया,

कहना जो चाहा वो लब तक ला ना पाया,

जैसे-तैसे दो मिनट अगले से बतियाया,

जब रखा फोन, तब कहीं चैन आया,

फ्री WhatsApp कॉल होने पर भी जो करते हमारी ही कॉल का इंतज़ार हैं,

वो इस तरह के वाहियात प्रश्न पूछने के किस तरह हकदार हैं,

मियाँ मशरूफ हो तुम, तो हम भी कहाँ खाली बैठे हैं,

किस बात की अकड़ है आपको, किस लिए यूँ ऐंठे हैं,

रिश्ता कोई भी हो, दोनों ओर से बराबर ईमानदारी ज़रूरी है,

एक तरफ से जो निभे, वो रिश्ता नहीं बस एक मज़बूरी है,

याद इतना ही करते हो हमको तो कभी खुद ही फोन मिलाओ,

वरना ये ऊलजलूल सवाल करके हमारा दिल ना जलाओ।