खुद की ज़रूरत पड़ने पर ही 'जो 'नज़र आते हैं,
बार-बार, गिन-गिनकर अपने एहसान 'जो' याद दिलाते हैं...
अपने, केवल अपने, बस अपने ही बखान 'जो' किए जाते हैं...
स्वयं को दुनिया जहां में 'जो' सबसे बेहतर बतलाते हैं...
और अपनी ख़्वाहिशों का बोझ दूसरे पर थोपते 'जो' ज़रा ना हिचकिचाते हैं...
दूसरे की उपलब्धियों पर बेझिझक 'जो' अपना हक़ जताते हैं..
पर दुसरे की ज़रूरत के समय अपनी ज़िम्मेदारी से 'जो' आँख चुराते हैं...
समाज के आगे 'जो' अपनों की बेज़्ज़ती करते ज़रा ना कतराते हैं..
और अपने कष्टों की गाथा ही 'जो' तोते की तरह रटते जाते हैं...
आपकी राय में , ये 'जो' क्या कहलाते हैं?
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