मुद्दत से आरज़ू थी फ़ुर्सत की, फ़ुर्सत जो आयी तो शर्तों पर...
पहले कहीं नहीं थी, फिर हर घर में, पर धूल जमीं रही परतों पर...
इम्तिहान दिए थे कयी पहले, पर 'लाक्डाउन के उपचार' का ज़िक्र कभी नहीं था पर्चों में...
वक़्त मिला बेइंतहा, इतने का करते क्या, तो जी-भर गुज़ारा बेतुके चर्चों में...
फ़ुर्सत में अमीर-ग़रीब, अक़्लमंद-मंदबुद्धि सब समान हैं, रहा फ़र्क़ नहीं कुछ दर्जों में...
और यूँ तो दुनिया पूरी बंद पड़ी है, पर कमी ज़रा ना आयी घर ख़र्चों में...
क्यूँकि दो जून की रोटी तब भी ज़रूरत थी, अब भी शामिल हैं इंसानी फ़र्ज़ों में...
पहले हम-तुम जैसे शायद कुछ थे, फ़ुर्सत ने इंसान नहीं कयी देश डुबाये क़र्ज़ों में...
इससे तो फ़ुर्सत ना आती, क़ुदरत ना क़हर यूँ बरसाती...
वक़्त ना होता पास मेरे पर बिटिया मेरी स्कूल को जाती...
संग अपने दोस्तों के खेलती, खिलती, सीखती, हँसती-मुस्कुराती..
"ये मत करो, वो मत करो", दिनभर बात-बात पर डाँट ना खाती...
फ़ुर्सत की बस आरज़ू ही अच्छी थी, असल ज़िंदगी में ये रास ना आयी...
झंडे तो कहीं गाड़े नहीं, बस खाया-पिया और तोंद कमाई...
You are welcome to my memorabalia!!! Here you would come across some of my very dearest creations...my poems..my heart & soul...You may agree, disagree or be indifferent to my thought process...however, if you come here once you would certainly not be able to ignore it :) Hope you enjoy reading it as much as I enjoyed writing these years ago...and may be even now :) Cheers!! Live, Love & Laugh!!
Friday, May 15, 2020
आरज़ू फ़ुर्सत की
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