Sunday, April 30, 2017

कहानी ( भाग-2)

चेहरे की हँसी और टूटे वादों के दर्द को अटेची में ले वो वहाँ पहुँची जहाँ सब उसे हँसते हुए देखना चाहते थे, उन लोगों के बीच जहाँ वो पैदा हुई, हँसी-खेली, पली, बढ़ी हुई, किसीने हाथ पकड़ चलना सिखाया तो किसीने लिखना, जब वो रूठी उसे बिना अहंकार मनाया, जब निराश हुई दिल से समझाया, जहाँ वो, वो हो सकती थी...कोई और बनने या जताने की ज़रूरत नहीं थी.. फिर भी वो ग़म को छुपाए झूठी हँसी हँसती जा रही थी, जता रही थी की वो ख़ुश है बहुत ख़ुश...

कुछ ही घंटों में झूठी मुस्कुराहटे... सच्ची खिलखिलाहटों में बदल गयीं... वहाँ, उन सबके बीच वो अपने आप को जीवित और सुरक्षित महसूस कर रही थी.... काश ये पल यूँ ही चलते जाते पर वक़्त कहाँ किसी के लिए रुकता है... छत्तीस घंटे बीत गए और समय गया था उनके बीच जाने का जिनको उसने अपना समझा और अपनाने की बहुत कोशिश की पर जो कभी उसे अपनाने की चाह रखते ही ना थे... उनके लिए वो किसी और की बेटी थी... उनसे उसका रिश्ता केवल ये था की वो उनके बेटे की बीवी थी और नाती की माँ... उनकी कुछ नहीं थी वो और उसके होने ना होने का उन्हें कोई फ़र्क़ भी नहीं पड़ता था... गर्भवस्था के नौ महीनो में एक बार भी यह जानने की कोशिश नहीं की थी उन्होंने कि वह कैसी थी... उनकी नज़र में उनका बेटा लाखों में एक, सर्वगुन सम्पन्न और बेहद ख़ूबसूरत था और बहु साधारण सी लड़की जिसकी जिंदंगी की सबसे बड़ी उपलबद्धि उनके बेटे से विवाह करना थी... 

मैंने अपने बेटे को कहाँ से कहाँ पहुँचा दिया, तुम्हारे माँ बाप नहीं पहुँचा पाए तुमको। सर्वगुन सम्पन्न हैं हमारे सभी बच्चेकहकर घंटों रोने छोड़ दिया था उन्होंने उस जच्चा को...ज़िंदगी में पहली बार किसीके पेरों पर गिरकर रोयी थी वो... पर ये नहीं समझ पाए थे वो की ये उसके संस्कार ही थे जो वो चुप रही.. पलटकर ये ना कह पायी की उसके माता-पिता ने उसके लिए जो किया अपना कर्तव्य समझ किया कभी जताया नहीं की उन्होंने उसके लिए क्या किया... वो नहीं पड़ी थी उनके बेटे के पीछे, उसने ही ये वादा करके ब्या करने को कहा था कि जिस प्रकार क्रूर व्यवहार उसके पिता ने उसकी माँ के साथ किया वो वैसा कभी उसके साथ नहीं करेगा... हालाँकि वक़्त और ज़रूरत आने पर वो सब भूल कर अपने पिता की तरह और उन्ही के साथ खड़ा रहा था... सभी ने मिलकर उसको पराया कर दिया था... माँफी नहीं मंगवाना चाहती थी वो किसी से, बस ये सुनना चाहती थीमैं समझता हूँ तुम्हारा दुःख, पापा को ऐसा नहीं कहना चाहिए था” ...  केवल इतना उस इंसान से जिसने शादी के पहले की कई क़समों के साथ शादी के सात फेरें भी लिए थे ये वचन देकर की सुख-दुःख में सहभागी बनूँगा, हमेशा ख़ुश रखूँगा, और भी जाने क्या-क्या... 


यही सब याद कर उसका मन एक बार फिर हताश और निराश हो रहा था.... निराशाओं से धूँन्दलाती आँखे लिए उसने उनकी आकांशाओं से भरे घर में प्रवेश किया...

Friday, April 28, 2017

कहानी ( भाग-1)

बहुत खुश थी वो उस दिन... दो साल हो गए थे उसे अपनों से मिले और इस बार तो अपने नन्हे-मुन्हे से भी मिलवाना था सबको... कई बरसों की प्राथनाओं से आया था नन्हा उनकी जिंदगी में.. लाजमी है आंखों का तारा था....

मुन्ने के लिए क्या ले जाना है क्या नहीं इसी उधेड़ बुन में थी कई दिनों से.. पाँव जैसे ज़मीन पर पड़ ही नहीं रहे थे उसके... बहुत ध्यान और लगन से उसने इस यात्रा की तैयारी की.. अटेचियों में भरने के लिए सब समान अब तैयार था...बस समान भर कर घर से निकलने की देर थी...दिल में अनंत उत्साह और सबसे मिलने पर ना जाने क्या-क्या होने की उम्मीदें बाँध ली थीं उसने मन ही मन...  

फिर अचानक कुछ ऐसा हुआ जिसके होने का उसने अनुमान भी ना किया था... कुछ ऐसा जिसके होने ने उसे उसके ही घर में ख़ुद के अस्तित्व के बारे में सोचने पर मज़बूर कर दिया... "क्या मेरा कोई वजूद नहीं ? क्या मेरी राय, मेरी बात का कोई महत्व नहीं? क्या इस घर की चार दीवारों में अपनी दुनिया बना लेने से मेरी दुनिया इसमें ही सिमट कर रह जाएगी?" ऐसे कितने ही सवाल उसके दिमाग़ से निकल कर दिल को छलनी किए दे रहे थे... 

अगले दो दिन वो बिलकुल चुप रही... इसी उम्मीद में की कोई उसके बिना कहे उसके सवालों के जवाब उसके लिए ले आएगा और उसे बिखरने से बचा लेगा... पर कोई जवाब ना आया.. सवाल दिन दुगनी रात चौगुनी तरक़्क़ी करते रहे... दिल भर सा गया... आँखें आँसुओं को अपने अंदर समेटे रहीं.. आस-पास सब वैसा ही चल रहा था बस वो वैसी नहीं थी.. चेहरे और चित्त पर एक ही भाव था... निराशा का...

मानो अटेचियों में समान के साथ अपनी मुस्कान भी बंद कर दी हो उसने..