Monday, April 24, 2017

बेटी तो सदा से पराई थी

सास-ससुर के लिए जो भी करती रही...वो सब उसका फ़र्ज़ था...
माँ-बाबा के लिए ज़रा कुछ कर बैठी...वो उनपर उसका क़र्ज़ था...
 
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पागल थे या दीवाने वो... बेटी होने पर ख़ुशियाँ उन्होंने मनाई थी...
आया वक्त जब फ़र्ज़ निभाने का... बोले बेटी तो सदा से पराई थी..

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बहु को कुछ भी कहने का जिस घर में सास-ससुर को अधिकार था...
उस घर के बेटे को सास का कहना "ध्यान रखना बीवी-बच्चों का" नागवार था...

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जो कल झूठे वादों पर घर अपने नयी दुल्हन लाए थे...
बहु का दर्जा भी दे ना सके, जाने क्या-क्या कहके आए थे...
वो बेटी कल अपने घर की विदा जब करवाएँगे...
'ख़ुश रखना उसको सदा" किस मुँह से कह पायेंगे...


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'बेटा' कह जब उसकी माँ उसके पति को बुलाती थी...
मन की एक बात जुबां तक वो लाने से कतराती थी...
" 'बेटा' कह कर मुझको माँ तुमने जीवन भर पुकारा था...
मैं गर हो गयी परायी... तो ये कैसे आज तुम्हारा था...
सास के मुँह से 'बेटी' सुनने को माँ कान मेरे तरस गए...
मैं 'मम्मी' उनको कहती रही अब तो कितने ही बरस गए...
क्यों तुमने शुरू से सिखाया नहीं बेटी तेरी यही कहानी है..
आज है हमारी... कल किसी और की हो जानी है...
बेटा तू है इस घर का ..जब तक न आयी तुझे जवानी है...
दूजे घर की बन जाए जब, बात ये मन से बिसरानी है...
मैंने आज बतायी जो, कल बेटी को अपनी तूने ये बात सिखानी है...

और कल मेरी आँख से था बहता जो आज तेरी आँख में पानी है..."

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