Sunday, August 19, 2007

कितना कुछ देखा है..

नन्ही-सी कली को सुन्दर फूल बनते देखा है,
ऊंचे आकाश को ज़मीन की धूल बनते देखा है..
सुख की मुस्कानों को दुःख के आँसू बनते देखा है,
दौलत के खातिर ख़ून के रिश्तों को टूटकर बिखरते देखा है…
निर्भीक जवानी को सहमे हुये बुढ़ापे में ढलते देखा है,
स्वार्थ के लिए इन्सान को पल-पल रंग बदलते देखा है..
कमजोर ओर असहाय पर बलवान को अकड़ते देखा है,
हालत से हारकर हमने पत्थर को पिघलते देखा है..
अपनों की आशाओं को निराशाओं में बदलते देखा है,
और यूं ही गिरते-गिरते कितनों को संभलते देखा है….
जीवन और मौत के बीच जो बारीक-सी एक रेखा है,
उस रेखा को किसी अपने के चेहरे पर हमने बड़ी नजदीक से देखा है…
छोटे-से अपने जीवन में जाने क्या-क्या बनते बिगड़ते देखा है,
कितना कुछ देखा है, लेकिन, अपने सपनों को केवल सपनों में सच होते देखा है…
(12-07-02)

1 comment:

उन्मुक्त said...

'अपने सपनों को केवल सपनों में सच होते देखा है…' पर जो सपने ही नहीं देखता उसके सपने कैसे सच होंगे।
ऐसे आपकी कविता में दर्द है। शायद शैली ने ठीक कहा कि Our sweetest songs are those that tell of saddest thoughts.
हिन्दी में उतना अच्छा लिखती हैं कुछ और क्यों नहीं लिखती।