'उनके' घर को 'अपना' घर, जब झुंझला कर पुरुष ने बोल दिया...
मानो बेदख़ल करने को जीवन से, दिल के पटों को पलक झपकते खोल दिया...
नारी के वर्षों के प्रेम को, उसने अपने क्षण भर के क्रोध से कम तोल दिया...
किसकी लगी नज़र उनके जीवन को, ये किसने उसमें यूँ विष घोल दिया...
मुस्कानें अब कम आती हैं चेहरों पर, अश्रुओं का भी कहाँ कुछ मोल रहा...
बातें बहुत कम होती हैं अब, जीवन में वार्तालाप का शून्य अब रोल हुआ...
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