कभी-कभी यूँ ही इस दिल में ख़्याल आते हैं...
बचपन के रिश्ते बढ़े होकर पराए क्यूँ हो जाते हैं?
क्यूँ बेटियों को पराया धन कह कर पाला जाता है?
क्यूँ उन्हें दान में देकर अपने ही घर से निकाला जाता है?
माता-पिता का प्यार तो बेटियों की जान होता है..
छोटा-बढ़ा जैसा भी हो...मैका हर लड़की का अभिमान होता है...
मुझे याद है कैसे बचपन में, पापा मुझे पढ़ाते थे...
इम्तिहान के दिनो में मुझे स्कूल तक पैदल ही ले जाते थे...
मेरे हर क़दम हर फ़ैसले पर उनको कितना विश्वास था..
उनका वो विश्वास मेरे लिए कितना ख़ास था..
ऐसा लगता था पापा साथ हैं तो पूरी दुनिया से लड़ सकती हूँ...
मुश्किल नहीं कुछ मेरे लिए, नहीं कोई अबला मैं तो स्वयं ही शक्ति हूँ...
फिर जाने कब किस मोड़ पर किस तरह डर मन में आए हैं...
नए-नए नहीं लगते, धीरे-धीरे ही मुझ में समाये हैं...
रक्षाबंधन पर जब भाई ने मेरी रक्षा की क़समें खायी थी...
तभी शायद चुपके-चुपके कुछ कमज़ोरी मेरे अंदर आयी थी...
क्यूँ मुझे किसिने कहा नहीं, भाई की रक्षा तू भी करना...
बढ़ी बहन है तू इसकी, ध्यान इसका तू भी रखना...
थोड़ी घबराहट तब घुस आयी जब कहा गया घर के काम शादी के बाद काम में आएँगे...
कमी रह गयी कुछ भी तो ससुराल वाले मैके पर ऊँगली उठाएँगे..
माँ, भाई को क्यूँ नहीं सिखाया काम, ब्या तो उसका भी होना था..
घर तो पति-पत्नी दोनो का होता है, तो काम एक का ही क्यूँ होना था?
कुछ टूट गयी शायद उस दिन भी जब पराया धन कह आपने कन्या दान का पुण्य कमा लिया...
बस हाड़-मास का पुतला जान, जीवन से अपने जुदा किया...
सोचने वाली बात है...जिसे जन्म देनेवले ही पराया कह विदा करें...उसे पराए लोग कैसे अपनाएँगे?
जिसे बचपन से कमज़ोर बनाया हो.. उसकी हिम्मत कौन बढ़ायेंगे?
तब मन मेरा ये कहता है, मैं अपनी बेटी को यूँ ना पालूँगी...
पराया धन उसको कहकर, जीवन से ना अपने निकालूँगी...
केवल बेटी नहीं है वो मेरी, मेरे हृदय का हिस्सा है..
ब्याकर परायी हो जाए, नहीं ऐसी किसी कहानी का क़िस्सा है...
ताक़त बनी है वो मेरी, मैं ताक़त उसकी बन जाऊँगी...
कमज़ोर कभी ना पड़ने दूँगी, मैं शशक्त उसे बनाऊँगी...
भाई करे जो तेरी तक्षा, तेरा भी कर्तव्य वही उसको ये सिखलाऊँगी....
दान नहीं करूँगी उसको, जब उसका ब्याह रचाऊँगी...
घर एक नहीं अब दो हैं तेरे, यही याद हर बार दिलाऊँगी...
घर एक नहीं अब दो हैं तेरे, यही याद हर बार दिलाऊँगी...
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